हर आदमी की समझ की सीमा होती है। प्रेमचन्द की समझ की भी सीमा थी। यदि वाल्मीकि, होमर, शेक्सपियर थोड़ा और समझदार होते तो और भी महान् होते। समझ की सीमा है, महत्ता की नहीं। लेकिन विद्वान आलोचक के विश्लेषण से यह स्पष्ट नहीं होता कि विकास के वे मार्ग कौन से हैं जिनसे प्रेमचन्द अपरिचित थे।
स्वातंत्रयोत्तर कहानी में रचनात्मक सहानुभूति एवं सामाजिक चेतना का स्वरूप पूर्ववर्ती पीढ़ी की अपेक्षा भिन्न प्रकार से प्रकट हुआ। सामान्यतः वर्तमान में जीने के लिए हमारी दो दृष्टियां निर्मित होती हैं-एक तो पूर्ववर्ती पीढ़ी की दृष्टि, जिसे हम अपनी सुविधाओं के मोह के कारण यथावत् स्वीकार कर लेते हैं तथा अपनी जरूरतों और अपने आप को नया दिखाने के लिए उसमें कुछ बाहरी काट-छांट कर लेते हैं।
(इसी पुस्तक से)






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