भारतीय आर्य, वैदिक सभ्यता की स्थापना, संघर्ष, इतिहास, भूगोल, स्त्री-स्थिति और ब्रह्माण्डीय विज्ञान की औपन्यासिक कथा
ऋग्वेद विश्व मानव के जीवन दर्शन का पाठ है। मानव का जीवन सरल बनाने के लिए भूगोल और खगोल का पाठ है। मानव-मस्तिष्क में चलने वाले कोलाहल की परिणति स्त्री-पुरुष के प्रेम-संसर्ग और वर्चस्व ;सत्ताद्ध स्थापना की आकांक्षा के लिए संघर्ष है। मनुष्य में दूसरे की उन्नति और बढ़ती धन-संपदा को लेकर ईर्ष्या और विद्वेष है। शरीर में उपलब्ध इन दुर्गुणों के रसायन प्राणलेवा प्रतिस्पर्ध के विदू्रप हैं। शरीर के इसी मन में परिवार, समाज और देश के प्राण न्यौछावर करने वाले उदात्त गुणों का प्रकाट्य भी है। पफलतः शांति, संतोष, अहिंसा के साथ, अपरिग्रह, समता और न्याय का पालन भी है।
उम्र के सोपान चढ़ता जीवन कुछ ऐसी होनी-अनहोनी घटनाओं से गुजरता है, जो अचंभित करती हैं। अतएव मनुष्य इनकी परिणति भाग्य-दुर्भाग्य और प्रारब्ध् में देखता है। निरंतर गतिशील ब्रह्मांड में एक आश्चर्यजनक अनुशासन है। इस गतिशील अनुशासन पर नियंत्राण की वल्गाएं कोई नहीं जानता किसके हाथ में हैं ? यह संशय है, सो ईश्वर है। इस चराचर जगत् को किसने रचा? इस ज्ञान के परिणाम में पंचभूत हैं। इन पंच तत्त्वों का संतुलन गड़बड़ाता है तो मनुष्य का स्वास्थ्य तो गड़बड़ाता ही है, इनके असंतुलन के भैरव-मिश्रण का तालमेल ऐसा कोलाहल रच देता है कि तांडव की विराट प्रलयलीला मनुष्य के समस्त भौतिक-अभौतिक विज्ञान समस्त तथाकथित विकास की उपलब्ध्यिों को लील जाता है। बचा मनुष्य पिफर इसी दिशा में चल पड़ता है। भारतीय दर्शन की यही जिजीविशा सर्वग्राही है।
इसी उपन्यास की भूमिका से







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